Presenting glimpses from my involvement in various shows as a member of the creative team. Featured credits: Veer Warrior, Vashikaran Yakshini, and Pakshiraj. #audio_series #audio #shows
Kudos to the entire team for their dedication and talent in bringing these projects to life! Special Mention – Himanshu, Anand, Neha, and Shubham
I was a team member and editor within a team that achieved three awards. These accolades include two consecutive Golden Mikes in 2022 and 2023 for the programs “Chanakya” and “Super Yoddha,” as well as recognition at the India Audio Summit and Awards 2023 in the category of Podcast/Audio Streaming – Religion & Spirituality, where “Chanakya” was awarded Best Show.
The engaging storylines and immersive sound designs have garnered rave reviews, making our series must-listen for enthusiasts seeking thrilling adventures and unforgettable characters. Thank you for being part of this incredible audio series journey.
शारदा ने अंग्रेजी फ़िल्मों में देखा था कि इस तरह मनोचिकित्सक या मनोविज्ञानी की देखरेख में कई लोग समूह में बैठते हैं। अपने जैसे अनजान लोगों के बीच बैठकर लोग अपने मन की बातें, दुख-दर्द बांटते हैं और यह प्रक्रिया मानसिक रूप से ठीक होने में उनकी मदद करती है। अक्सर कई बार जो बातें वे खुद को जानने वाले लोगों के बीच नहीं कर पाते, उन बातों को किसी अनजान व्यक्ति के सामने बताना आसान हो जाता है। अपनी पुरानी सहेली रूबी की सलाह पर वह अपने गंभीर अवसाद और परिवार व समाज से उचटते व्यवहार को ठीक करने के लिए एक मनोचिकित्सक के पास जाने लगी। वहीं कुछ दिन बाद इन साप्ताहिक सेशन की शुरुआत हुई जहां शहर और बाहर के लगभग 2 दर्जन लोग साथ बैठकर अपनी समस्याओं के बारे में दूसरों को बताने लगे और दूसरों का मर्म सुनने लगे। पहले कुछ हफ्ते शारदा उन 5-7 चुप लोगों में थी जो अपनी कहने के बजाय दूसरों की व्यथा सुनना चाहते थे। फिर कुछ प्रोत्साहन के बाद एक सेशन में शारदा ने बोलना शुरू किया…कुछ इस तरह जैसे वह इतने दिनों की भड़ास निकाल रही हो।
“मेरा नाम शारदा कमल है। अभी इस से ज़्यादा जानकारी देना असहज लग रहा है। आप में से कुछ लोगों के बारे में जानकर मुझे यह शक है कि मेरी परेशानी कितनी बड़ी है या उसे परेशानी कहा भी जाना चाहिए या नहीं। फ़िल्मों की तरह मुझमें ऐसी क्षमता नहीं है कि एक बार में अपने जीवन का सार सुना दूं, जो मन को कचोटती बातों में इस समय याद आ गई वही साझा कर रही हूँ। स्कूल के दिनों में मेरी कुछ सहपाठी जिनको मैं सहेली मानती थी उन्होंने मुझे मानसिक रूप से काफी कमज़ोर किया जिसका असर मुझपर अब तक है। उनमें से एक नाम श्वेता अब भी मुझे रात में करवटें बदलने पर मजबूर कर देता है। क्लास 5 में नए स्कूल में पहुंची तो अंदर बहुत डर था। टीचर ने जिन लड़कियों के साथ बैठाया, फिर लगातार 4-5 साल उन्हीं के साथ बैठना हुआ। पहले छोटी बातों पर श्वेता के ताने शुरू हुए, मुझे पलट कर ठीक से जवाब देना नहीं आता था। घर पर किसी ने ऐसा सिखाया ही नहीं था। पापा-माँ तो यही बताते थे कि दूसरों से अच्छा व्यवहार करोगे तो सब तुमसे अच्छे से रहेंगे। फिर कभी मेरी ड्रेस पर इंक गिरा देना, किताब से पन्ने निकाल लेना जैसी शैतानियां होने लगी। श्वेता के साथ-साथ ‘मेरे ग्रुप’ की अन्य लड़कियां भी वैसा ही करनी लगी। धीरे-धीरे मुझे इस सब की इतनी आदत हो गई और पता ही नहीं चला कि यह गलत है। शायद ऐसा ही हर पीड़ित के साथ होता है, उसे दुख सहने, आहत होने की आदत पड़ जाती है। 3 साल बाद जब किशोरावस्था आई, तो उन सबने मेरे चेहरे और शरीर का मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। उस उम्र से हम सभी गुज़र चुके हैं और तब आत्मविश्वास टूटने का मतलब है शायद ज़िन्दगी भर अधूरे से बन कर रह जाना। मुझे खुद से नफरत होने लगी। मैं श्वेता और पूनम जैसी क्यों नहीं दिखती? मेरे शरीर में बदलाव इतना धीरे क्यों हो रहे हैं? क्या कमी है मुझमें? जैसे सवालों ने एक अच्छी छात्रा को औसत बना दिया था। उस समय किसके पास जाती और क्या शिकायत करती? अपने दर्द को अपने लिए भी जब शब्दों में ही नहीं ला पा रही थी! किसी को बताकर भी क्या कर लेती? समाज का जवाब होता है – “यह तो बचपन में सबके साथ होता है”, “यह तो सामान्य बात है”, “तुम भी वैसी बन जाओ”, “उनका सामना करो”, “यह कोई अपराध थोड़े ही है”…सही बात है छोटे बच्चों की छोटी बातें अपराध में कहाँ गिनी जा सकती हैं। ऊपर से टीचर, अभिभावकों की नज़र में…शायद मेरे बाल मन के लिए भी वे सभी मेरी सहेलियां थी। एकदम से उठकर दूसरी जगह कहाँ बैठती? टीचर और बाकी क्लास को क्या समझाती? अलग बैठकर बाकी पीरियड बच जाती, लेकिन इंटरवल और फ्री पीरियड में श्वेता और गैंग से कैसे बचती?
समय बीत रहा था और मैं खुद में सिमटती जा रही थी। मेरी पढ़ाई, सेहत का स्तर काम चलाऊ चलता रहा। फिर एक दिन श्वेता ने कुछ नया करने की ठानी। उसने छुट्टी से पहले मेरी फ़्रॉक के पीछे लाल इंक डाल दी। साइकिल स्टैंड से स्कूल से बाहर जाने में काफी समय लगता और कुछ देर बाद एक लड़की ने मुझे बताया कि मेरी फ़्रॉक पर माहवारी का लाल धब्बा है। अब तक जाने कितने बच्चों की नज़रों और हंसी को नज़रें झुकाये नज़रअंदाज़ कर रही थी, लेकिन आज लग रहा था कुछ बात तो है। जब मैंने फ्रॉक पर स्वेटर बांधा तो श्वेता और सहेलियों के हँसने की आवाज़ आई। अब तक कितने ही लड़के मुझे देख चुके होंगे। मैं शर्म के मारे तेज़ी से स्कूल से निकल गई और 2 दिनों तक स्कूल नहीं गई…शायद रोती रही।
उम्र के किसी पड़ाव पर जो बात हमें बहुत छोटी लगती है, वही उम्र के किसी दूसरे मोड़ पर जीना मुहाल कर देती हैं। इनके अलावा बात-बात पर ताने मारने वाले शिक्षकों-शिक्षिकाओं का कैटेलिस्ट अलग जुड़ रहा था। ऐसा लगता था जैसे घर या अपनी स्थिति की सारी भड़ास वे लोग बच्चों पर निकालते थे। एक बच्ची बड़ी उम्मीद से रोज़ सुकून की सांस खोजती थी और रोज़ उसे नियति से वही जवाब मिलता था। आखिर इस जेल से वह जाए कहाँ? ऐसे ही एक दिन मेरे घरवालों का मज़ाक बनाए जाने का मैंने विरोध किया। यह बात श्वेता को इतनी लगी कि वह लगातार उनपर भद्दे मज़ाक करने लगी जिससे साथ की लड़कियां भी असहज होने लगीं। एक सीमा बाद इतने समय का गुस्सा उबाल पर आया और आखिरकार मैंने टूटी खिड़की की लोहे की डंडी उसके सिर में दे मारी। वह बड़ी नहीं थी पर श्वेता के सिर पर ऐसे कोण पर लगी थी कि उसके माथे से खून फ़ूट पड़ा।
जो बातें अब समय के मरहम से कुछ मंद पड़ी हैं उन्हें तब किसी को इतनी आसानी से समझा पाना मेरे लिए नामुमकिन था। मैं तब समझाने की जो कोशिशें की भी उनका उल्टा असर हुआ। इसके बाद तो जैसे स्कूल, सहपाठियों और परिवार सबकी नज़र में मैं कोई उग्रवादी बन गई। वर्षों तक उनके सामने या मेरे हाव-भाव से झलक रहा मेरा मानसिक उत्पीड़न किसी को नहीं दिखाई दिया…हाँ, लेकिन अब मैं अछूत, सलाख मारने वाली लड़की बन गई। पता नहीं क्यों इस घटना के बाद भी मैं उसी स्कूल में पढ़ती रही। सबसे अलग बैठी बचपन-किशोर काल जीने के बजाय सूखी आँखों से औपचारिकता निभाती हुई। वैसे और भी कुछ वजहें रही होंगी पर यह भी एक बड़ी वजह थी जो मैं सामाजिक रूप से थोड़ी पिछड़ी, दबी सी रही। कॉलेज, नौकरी की तैयारी, नौकरी और शादी के बाद भी हर बार लोगों से मिलना ही एक डर जैसा होता है। काश मेरे जीवन का शुरुआती पड़ाव प्रोत्साहन भरा और घुटन वाला न होता, तो अगले पड़ावों के लिए मैं बेहतर ढंग से तैयार हो पाती और उन्हें पूरी तरह, बिना डरे जी पाती।
श्वेता की चोट तो हफ़्ते भर में ठीक हो गई थी पर मेरी चोट इतने सालों बाद भी ताज़ा है…और अब भी किसी को नहीं दिखती।
नमस्ते, इस साल ई-बुक संस्करण में प्रकाशित दोनों किताबें अब पेपरबैक में उपलब्ध हैं। लगातार स्नेह बनाए रखने के लिए, आप सबका आभार! आगे के सफर को बेहतर बनाने के लिए भी आपके सहयोग वाले धक्के की आशा है। प्यार से धक्का मार के लगभग 100 कहानियों का लुत्फ़ उठाएं। ❤
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ICF Awards 2018 results to be calculated based on previous awards polls, nominations. No category-wise separate polls this year. However, you can still nominate a fan or artist in these categories. Your nomination mail/message equals to one vote. Email nominee’s name, category (maximum 3 category nominations for 1 person) – letsmohit@gmail.com or inbox us (Indian Comics Fandom), Deadline is 5 PM Sunday, 30 December 2018