Maza aana chahiye bas… (Laghukatha) #zahan

मज़ा आना चाहिए बस…(लघु-कहानी) #ज़हन

गगन कई महीनों बाद अपने दोस्त सुदेश के साथ सिनेमा हॉल आया था। 3-4 बार योजना बनाने और फिर नहीं मिल पाने के बाद आखिरकार दोनों को साथ फिल्म देखने का मौका मिला था। स्कूल के दिन तो कबके जा चुके थे पर इस तरह मिलकर दोनों स्कूल जैसा समय वापस जीने का प्रयास करते थे।
फिल्म से पहले चल रहे दूसरी फिल्मों के ट्रेलर विज्ञापनों पर गगन बोला – “क्या यार! ट्रेलर में तो इस पिक्चर का म्यूज़िक, कहानी और यहां तक की लोकेशन, किरदारों का मेकअप भी पिछले साल आई हॉलीवुड फिल्म से मिलते-जुलते हैं। कब सुधरेंगे ये बॉलीवुड वाले? हर दूसरी फिल्म का यही हाल है। साउथ और बाकी रीजनल सिनेमा वाले भी बहुत कॉपी मारते हैं। इतने लेखक, कलाकार बैठे हैं अपने इंडिया में उनसे ही कुछ ले लो…मगर नहीं! जो आईडिया बाहर पैसे कमाएगा उसकी हूबहू नक़ल ये लोग बना देंगे…”
सुदेश ने गगन की बातों वाली ट्रेन की चेन खींचकर उसे रोका – “भाई, तू इंजीनियर है, ज़्यादा प्रेमचंद मत बन! मज़ा आना चाहिए बस…बाकी सब फालतू की बातें हैं।”
कुछ महीने बीतने के बाद कॉलेज के दोस्तों में गप्पे लड़ाते हुए सुदेश बोला – “इंडिया वालों पर कुछ नहीं होता! कल छोटे से देश कोस्टा रिका के दो कलाकारों को ऑस्कर मिला और कई सालों की तरह इंडिया को ठेंगा। ये…”
अब गगन की बारी थी, उसने वह कालजयी डायलॉग कंठस्त कर लिया था – “रहने दे भाई….मज़ा आना चाहिए बस…बाकी सब फालतू की बातें हैं।”


समाप्त!

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Phd waale Doctor (Laghukatha)

पीएचडी वाले डॉक्टर (लघुकथा)

वर्ष 1998

वैसे तो संदीप जी की किराना दुकान थी, पर वे दुकान के बाहर भी बड़े जुगाड़ू इंसान थे। खुद का पढ़ने में मन कभी लगा नहीं, इसलिए 10वीं के बाद दुकान पर बैठ गए, लेकिन समय के साथ पास ही हाईवे पर बने विश्वविद्यालय में उनकी अच्छी जान पहचान हो गई थी। अब दुकान के साथ-साथ उन्होंने उस विश्वविद्यालय में छात्रों के एडमिशन पर कमीशन लेने का काम शुरू किया। कुछ सालों बाद, अच्छे संपर्कों और कुछ घूस के साथ संदीप ने अपनी औसत बुद्धि धर्मपत्नी को डॉक्टरेट की उपाधि दिलवा दी। इस उपलब्धि से उत्साहित होकर उन्होंने अपनी साली, बहन, जीजा को भी पीएचडी धारक बनवा दिया। इन डॉक्टरेट डिग्री के बल पर इन “डॉ” को शिक्षा, अनुसंधान से जुड़े सरकारी विभागों में नौकरी मिल गई। इस तरह संदीप ने कई जानने वालों को फर्ज़ी सम्मान और नौकरियां दिलवाने में मदद की। 

वर्ष 2021

संदीप की 30 साल की बेटी, हेमा का किसी काम में मन नहीं लगता था। ऊपर से वह भी औसत बुद्धि। अब पुराना ज़माना जा चुका था। वर्तमान में, पीएचडी करने के लिए कड़े नियम लागू थे और इस डिग्री में चयन से लेकर अंतिम शोध लिखने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी कि कोई भी डॉक्टरेट की उपाधि पा ले। इतना ही नहीं, उस विश्वविद्यालय पर भी ऐसे मामलों में कुछ जांच चल रही थीं। संदीप के संपर्कों ने अब जो इक्का-दुक्का जगह उपलब्ध बिकाऊ पीएचडी का दाम बताया वो आम इंसान की पहुंच से बाहर था। फिर इतने पैसे देने के बाद भी मेहनत और समय लगना ही था…जो संदीप को सिस्टम की बेईमानी लगता था। 

एक दिन किसी शुभचिंतक ने संदीप की दुखती रग पर हाथ रख दिया। 

“आपके परिवार में इतने पीएचडी वाले डॉक्टर हैं, बिटिया को भी कहिए…कुछ देखे इसमें।”

संदीप ने मन ही मन पहले हालात और फिर शुभचिंतक को गाली देकर लंबी सांस ली…और कहा –

“आजकल के बच्चों में…वह पहले जैसी बात कहाँ?”

समाप्त!

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#ज़हन