लेखकों के लिए कुछ सुझाव

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हर लेखक (या कवि) अपनी शैली और पसंद के अनुसार कुछ रचना-पद्धतियों (genres) में अच्छा होता है और कुछ में उसका हाथ तंग रह जाता है। यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि कुछ विधाओं में लेखक अधिक प्रयास नहीं करता। समय के साथ यह उसकी शैली का एक हिस्सा बन जाता है। अक्सर किसी अनछुई विधा को कोई लेखक पकड़ता भी है तो उसमे अनिश्चितता और असंतोष के भाव आ जाते है। सबसे बड़ा कारण लेखक ने इतने समय में स्वयं के लिए जो मापदंड बनाए होते हैं, उनपर इस नयी विधा की लेखनी खरी नहीं बैठती। ऐसा होने पर लेखक रही उम्मीद भी छोड़ कर वापस अपनी परचित विधाओं की तरफ वापस मुद जाता है। अपने अनुभव की बात करूँ तो मुझे हास्य, हॉरर, ट्रेजेडी, इतिहास, ड्रामा, सामाजिक संदेश जैसे विषयों पर लिखना अधिक सहज लगता है, जबकि रोमांटिक या साइंस फिक्शन जैसी थीम पर मैंने काफी कम लेखन किया है। नयी श्रेणियों में पैर ज़माने का प्रयास कर रहे लेखकों और कवियों के लिए कुछ सुझाव हैं।

*) – अपनी वर्तमान लेखन क्षमता, शैली और उसकी उसकी लोकप्रियता की तुलना नयी विधा में अपने लेखन से मत कीजिये। ऐसा करके आप नयी रचना-पद्धति में अपने विकास को शुरुआती चरण में रोक देते हैं। खुद को गलती करने दें और नए काम पर थोड़ी नर्मी बरतें। याद रखें बाकी लेखन शैलियों को विकसित करने में आपको कितना समय लगा था तो किसी अंजान शैली को अपना बनाने में थोड़ा समय तो लगेगा ही।

*) – शुरुआत में आसानी के लिए किसी परचित थीम के बाहुल्य के साथ अंजान थीम मिलाकर कुछ लिखें। इस से जिस थीम में महारत हासिल करने की आप इच्छा रखते हैं उसमे अलग-अलग, सही-गलत समीकरण पता चलेंगे। थोड़े अभ्यास के बाद परिचित थीम का सहारा भी ख़त्म किया जा सकता है।

*) – आदत अनुसार कहानी, लेख या कविता का अंत करने के बजाए उस थीम में वर्णन पर ध्यान दें। चाहे एक छोर से दूसरा छोर ना मिले या कोई अधूरी-दिशाहीन रचना बने फिर भी जारी रहें। इस अभ्यास से लेखन में अपरिचित घटक धीरे-धीरे लेखक के दायरे में आने लगते हैं।

*) – यह पहचाने की आपकी कहानी/रचना इनसाइड-आउट है या आउटसाइड-इन। इनसाइड-आउट यानी अंदर से बाहर जाती हुयी, मज़बूत किरदारों और उनकी आदतों, हरकतों के चारो तरफ बुनी रचना। आउटसाइड-इन मतलब दमदार आईडिया, कथा के अंदर उसके अनुसार रखे गए किरदार। वैसे हर कहानी एक हाइब्रिड होती है इन दोनों का पर कहानी में कौन सा तत्व ज़्यादा है यह जानकार आप नए क्षेत्र में अपनी लेखनी सुधार सकते हैं।

– मोहित शर्मा ज़हन

Read चनात्मक प्रयोगों से डरना क्यों?

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रचनात्मक प्रयोगों से डरना क्यों?

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एक कलाकार अपने जीवन में कई चरणों से गुज़रता है। कभी वह अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट रहता है तो कभी कई महीने या कुछ साल तक वो खुद पर शक-सवाल करता है कि क्या वह वाकई में कलाकार है या बस खानापूर्ति की बात है। इस संघर्ष में गिरते-पड़ते उसकी कला को पसंद करने वालो की संख्या बढ़ती चली जाती है। अब यह कला लेखन, कैमरा, चित्रांकन, शिल्प आदि कुछ भी हो सकती है। अपनी कला को खंगालते, उसमे सम्भावनाएं तलाशते ये कलाकार अपनी कुछ शैलियाँ गढ़ते है। धीरे-धीरे इन शैलियों की आदत इनके प्रशंषको को पड़ जाती है। कलाकार की हर शैली प्रशंषको को अच्छी लगती है। अब अगर कोई नया व्यक्ति जो कलाकार से अंजान है, वह उसके काम का अवलोकन करता है तो वह उन रचनाओं, कलाकृतियों को पुराने प्रशंषको की तुलना में कम आंकता है। बल्कि उसकी निष्पक्ष नज़र को उन कामों में कुछ ऐसी कमियां दिख जाती है जो आम प्रशंषक नहीं देख पाते।

इन शैलियों की आदत सिर्फ प्रशंषको को ही नहीं बल्कि खुद कलाकार को भी हो जाती है। इस कारण यह ज़रूरी है कि एक समय बाद अपनी विकसित शैलियों से संतुष्ट होकर कलाकार को प्रयोग बंद नहीं करने चाहिए। हाँ, जिन बातों में वह मज़बूत है अधिक समय लगाए पर अन्य शैलियों, प्रयोगों में कुछ समय ज़रूर दे। साथ ही हर रचना के बाद खुद से पूछे कि इस रचना को अगर कोई पुराना प्रशंषक देखे और कोई आपकी कला से अनभिज्ञ, निष्पक्ष व्यक्ति देखे तो दोनों के आंकलन, जांच और रेटिंग में अधिक अंतर तो नहीं होगा? ऐसा करने से आपकी कुछ रचनाओं औेर बातों में पुराने प्रशंषको को दिक्कत होगी पर दीर्घकालिक परिणामों और ज़्यादा से ज़्यादा लोगो तक अपनी रचनात्मकता, संदेश पहुँचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

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Naripana (नारीपना) [ISBN – 9781310626500] #mohitness

naripana

Ebook and Paperback (POD), Revised edition, 37 pages

Published March 2016 by Freelance Talents (first published June 2014)

Cover art – Kshitij Dhyani

ISBN 13  – 9781310626500

Language – Hindi

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#Rants

Population of undivided India in 1947 was approx 390 million. After partition, there were 330 million (84.62%) people in India, 60 million (15.38%) in East-West Pakistan. Total area of Pakistan after partition was 943665 square kilometers – 22.3% of 4.23 Million square kilometers (area of undivided India before partition), 7% difference between population and area. Pak occupied Kashmir area – 13,297 km² further increases stats mismatch in favor of Pakistan….and then there is article 370 in Jammu & Kashmir….useless gangrene affected limb. This increased burden on India directly-indirectly affects our standard of living in general and kills millions of people annually. Collateral damage ki chinta kiye bina, “nationalism” k liye na sahi par lakho marte logo k liye, kuch karna chahiye. Kashmir chahiye-aazadi chahiye…udhaari leke ulta udhaar dene waale se sood maang rahe hain….Human rights dekho par phir poore context, anupaat k saath dekho….

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*) – शनि शिंगणापुर मामला

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हिन्दू धर्म / सनातन धर्म में कई बातें, रीती-रिवाज़ एकसार हैं, जबकि कुछ रिवाज़ स्थानीय मान्यताओं, लोगो के हिसाब से अलग-अलग होते हैं। जैसे कुछ स्थानों में विजयादशमी पर साधारण पूजा की जाती है, रावण दहन नहीं होता। उत्तरप्रदेश के एक कसबे में पुरुष होली नहीं खेल सकते, यहाँ रंगवाली होली सिर्फ महिलाओं द्वारा खेली जाती है। ऐसे ही अलग-अलग मान्यता, त्यौहार, रिवाज़ पर कुछ स्थानों पर थोड़े बदल जाते हैं। कुछ जगह पुरुषों को कुछ करने की मनाही है, तो कहीं महिलाओं को – तो कहीं पूरा का पूरा गांव त्यौहार नहीं मनाता। जिनका कारण वहां के बड़े बूढ़े विस्तार से बताते हैं। यह स्वतंत्रता – एक जैसे अधिकारों की बात है तो ठीक है, फिर सब जगह, धर्म, प्रांतो में एकसाथ लागू होनी चाहिए। क्या ऐसा होगा? या आज़ादी-दकियानूसी-खुली सोच एक धर्म को कोसने तक सीमित रह जायेगी? सबकी आज़ादी के पक्ष में हूँ, खुली सोच के पक्ष में हूँ पर फिर सबके लिए एकसाथ “आज़ादी” लागू करने के पक्ष में भी हूँ।

भारत में अक्सर लोग एक अच्छे सामाजिक आंदोलन की आड़ में खुद (या अपनी संस्था) के लिए फंडिंग और खुद को सेलेब्रटी बनाने का पिग्गीबैकिंग काम करते है। नारीवाद के साथ अक्सर ऐसा होता देखता हूँ। लोग अपने निजी मतलब के लिए “महिलाओं के अधिकारों, उत्थान” की बात करते है। मामूली कलाकार जो वैसे कुछ ना कर पाते अपने जीवन में बड़े ऊँचे स्थान पर पहुँच जाते है, (ध्यान रहे यह बात मैं सब एक्टिविस्ट के बारे में नहीं कह रहा)। किसी को गूगल पर पता चला कि इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है तो पहुँच वहां गए एक्टिविस्ट बनने। पता है इसके बाद देश-दुनिया में फ्री की पब्लिसिटी, अवार्ड्स और ज़िन्दगी भर की अच्छी फंडिंग मिलनी है। इस मामले में मुझे इस्लाम धर्म पसंद है, जो विरासत में मिला है वो मानो या रहने दो, बदलो मत। शाह बानो बेगम मामला इसकी एक मिसाल है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट को धार्मिक मान्यताओं से नीचे माना गया।

तो मेरा यह निवेदन है आंदोलनकारियों, स्वयंसेवी संस्थाओं, कानून और सरकार से कि करिये तो सबके लिए करिये। सबको एक पैमाने पर रख कर करिये, जो आसान शिकार मिल गया, जहाँ बैकफायर होने का कोई चांस नहीं वहां नौटंकी ना बखारें। जाते-जाते आसान शिकार हिन्दुओ के बारे में बता दूँ। मतलबी और लालची लोग होते हैं अधिकतर। उन्हें खुद से मतलब है, उनके घर तक अगर कोई बात नहीं आ रही तो चाहे आप उनकी देवी माँ का इतिहास बदल कर राक्षस महिषासुर का महिमामंडन कर दो, इतिहास की किताबों से सबका सम्मान और खुद को हेय दृष्टि से देखने की आदत डलवा दो, अपराध को इतना त्राहि-त्राहि मोड में दिखाओ की 200 देशों में अपराध दर में कहीं बीच में मौजूद भारत सबको पहले स्थान पर दिखने लगे और अपने देश-देशवासियों से ही घृणा करवा दो। कुछ बैकफायर नहीं होना, उल्टा सेलिब्रिटी बनना पक्का!

‪#‎ज़हन‬

‪#‎शनि_शिंगणापुर‬ ‪#‎शनि‬ ‪#‎हिन्दू‬ ‪#‎भारत‬ ‪#‎सनातन‬ ‪#‎shani‬ ‪#‎shingnapur‬ ‪#‎india‬ ‪#‎bharat‬‪#‎shanishingnapur‬

उदार प्रयोग (कहानी)- मोहित शर्मा ज़हन #trendster

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“पोराजिमोस बोलते हैं उसे, जर्मनी और उसके सहयोगी देशो में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाज़ी सरकार द्वारा रोमानी जिप्सी समुदाय का नरसंहार। पता सबको था कि कुछ बुरा होने वाला है फिर भी मुस्कुराते हुए नाज़ी सिपाहियों को देख कर भ्रम हो रहा था। शायद जैसा सोच रहें है या जो सुन रहें है वह सब अफवाह हो। हज़ारो इंसानो को एकसाथ मारने वाले नाज़ी गैस चैम्बर असल में कोई कारखाने हों। भोले लोगो की यही समस्या होती है, वो बेवकूफ नहीं होते पर उन्हें बेवकूफ बनाना आसान होता है। मेरे 4 सदस्यों के परिवार पर एक अफसर को दया आ गयी उनसे पूरे परिवार को बचा लिया। हम सब उसके घर और बड़े फार्म में नौकर बन गए।

2 समय का खाना और सोने की जगह मिल गयी, कितना दयालु अफसर था वह। कुछ हफ्तों बाद अफसर ने हमे बताया कि एक बड़े उदार जर्मन वैज्ञानिक हमारे जुड़वाँ लड़को को गोद लेना चाहते हैं। वो उनका अच्छा पालन-पोषण करेंगे। शायद फिर कभी अपने बच्चो को हम दोनों ना देख पाते पर उनके बेहतर भविष्य के लिए हमने उन्हें जाने दिया। उनके जाने से एक रात पहले मैं सो नहीं पायी। जाने से पहले क्या-क्या करुँगी, बच्चो को क्या बातें समझाउंगी सब सोचा था पर नम आँखों में सब भूल गयी। हमेशा ऐसा होता है, सोचती इतना कुछ हूँ और मौका आने पर बस ठगी सी देखती रह जाती हूँ।

युद्ध समाप्त होने की ओर बढ़ा और हमे रूस की लाल सेना द्वारा आज़ाद करवाया गया। इंसानो के अथाह सागर में अपने बच्चो को ढूंढने की आस में जगह-जगह घूमे हम दोनों। किसी ने उस वैज्ञानिक के बेस का पता बताया। वहां पहुंचे तो हमारे कुपोषित बच्चे टेबल पर पड़े तड़प रहे थे। उनपर उस वैज्ञानिक ने जाने क्या-क्या प्रयोग किये थे। बच्चो का शरीर फफोलों से भरा था,  हाथ-पैरों से मांस के लोथड़े लटक रहे थे। उनकी आँखों से आंसूओं के साथ खून टपक रहा था। पता नहीं जान कैसे बाकी थी उन दोनों में….शायद मुझे आखरी बार देखने के लिए ज़िंदा थे दोनों। उन्हें गले से चिपटाकर रोने का मन था पर छूने भर से वो दर्द से कराह रहे थे। मैंने पास खड़े सैनिक की रिवाल्वर निकालकर दोनों बच्चो को गोली मार दी। उसके बाद मैंने कमरे में मौजूद सैनिको पर गोलियां चलाना शुरू किया। वो सब चिल्लाते रहे कि वो मेरी मदद के लिए आये हैं… पर अब किसी पर विश्वास करने का मन नहीं। मेरे पति मुझे पागल कहकर कर झिंझोड़ रहे थे, चिल्ला रहे थे। गुस्सा करना उनकी पुरानी आदत है, सिर्फ मुझपर बस चलता है ना इनका।”

अपने पति का गुस्सा अनसुना कर खून के तालाब के बीच, वह रोमानी-जिप्सी महिला बच्चो को सीने से लगाकर लोरी सुनाने लगी।

समाप्त!

Read related story – सभ्य रोमानी बंजारा

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अक्ल-मंद समर्थक (कहानी) – मोहित शर्मा #ट्रेंडस्टर

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Scene 1) – एक हिंसक गैंगवार के बाद एक छोटे कसबे के घायल नेता को उसके समर्थको की भीड़ द्वारा अस्पताल लाया गया। डॉक्टर्स ने जांच के बाद नेता जी को मृत घोषित कर दिया।

“अरे ऐसे कैसे हमारे मसीहा को मरा हुआ बता दिया?” समर्थको का गैंगवार से मन नहीं भरा था। …..उन्होंने डॉक्टर्स को ही पीट-पीट कर मृत घोषित कर दिया। घटना के बाद अस्पताल के मैनेजमेंट ने फैसला किया कि आगे से किसी नेता, दबंग या प्रभावशाली व्यक्ति की मौत होने पर भी उसे ज़िंदा बताकर दिल्ली या पास के किसी बड़े शहर के अस्पताल रेफर कर दिया जाएगा।

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Scene 2) – ऐसे ही गैंगवार में दूसरे गुट का गंभीर रूप से घायल नेता जब अस्पताल लाया गया तब ड्यूटी पर डॉक्टर एक ऑपरेशन में व्यस्त थे। समर्थको से डॉक्टर्स का इंकार और इंतज़ार बर्दाश्त नहीं हुआ। डॉक्टर्स को भीड़ ने पीट-पीट का लहूलुहान, बेहोश कर दिया।  जब तक डॉक्टर्स होश में आये तब तक ऑपरेशन वाला पहला मरीज़ और इंतज़ार कर रहे नेता जी दोनों त्वरित इलाज के अभाव में दुनिया को टाटा कर चुके थे। समझदारी का परिचय देते हुए यहाँ के डॉक्टर्स ने दूसरे नेता जी को लखनऊ के हॉस्पिटल रेफर कर दिया।

समाप्त!

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Sabhya Romani Banjara (Story) #mohit_trendster

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अथाह समुद्र से बातें करना मेरा शौक है। यह हर बार मुझे कुछ सिखाता है। मैं सागर किनारे या नाव से किसी टापू पर या फिर सागर के बीचो बीच अक्सर आता हूँ। हाँ, जब कोई बात अक्सर हो तो उस से कभी-कभार बोरियत हो जाती है। वो ऐसा ही एक कभी-कभार वाला दिन था। इतना सीखा था सागर से कि ऐसे दिन झेले जा सकते थे। जब लगा कि अब चलना चाहिए तभी एक बोतल तैरती नज़र आई। वाह! मन में बहुत सी बातें घूमने लगी। क्या होगा बोतल में? किसी ख़ज़ाने का नक्शा, या किसी ऐतिहासिक हस्ती का आखरी संदेश या परग्रहियों की नौटंकी?

बंद बोतल में कई कागज़ ठूंसे थे। जिनमें कुछ अंग्रेजी में और कुछ किसी और भाषा में। ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की लिखावट नहीं थी उन पन्नो में, जैसे बड़ा-बड़ा बच्चे लिखते है कुछ वैसा था। अंग्रेजी वाले कागज़ पढ़े तो उनमे किसी के लिए कोई संदेश नहीं था। कविताएं, कहानियां थी! लेखन शैली से अंग्रेजी उसकी मातृभाषा नहीं लग रही थी फिर भी लिखने वाले की कल्पना के रोलरकोस्टर में मेरा सर चकरा गया। ख्याल आया कि जिस भाषा में उस लेखक को सहजता होगी, जिसके पन्ने मैं समझ नहीं पा रहा उस भाषा मे उसने क्या-क्या रच डाला होगा। दुनिया पलट देने वाला मसौदा एक जिन्न की तरह बोतल में बंद समुद्र की ठोकरें खा रहा था। अपने स्तर पर उस भाषा को जानने, उसके अनुवाद की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली। एक दिन मेरे पिता ने उन कागज़ों को मेरी डेस्क पर देखा और चौंक कर मुझसे उसके बारे में पूछा। मैंने जब सब बताया तो वो भावुक हो गए। उन्होंने बताया कि यह रोमानी भाषा से निकली किसी बोली में लिखे पन्ने हैं। मैं चौंक गया, आखिर जिस भाषा-बोली की पहचान इतनी भाग-दौड़ के बाद नहीं हो पाई वो मेरे पिता ने देखते ही कैसे पहचान ली? ऐसा क्या लिखा था उन कागज़ों में जो पत्थर से पिता को पिघला दिया?

कोई सवाल करने से पहले ही उन्होंने बताया कि उनके पिता एक फ्रांस के एक रोमा बंजारे थे। पिता बड़े हुए और शहर की चमक में टोली से अलग हो गए। उस समय (और शायद आज भी) ज़्यादातर यूरोप के लोग रोमा लोगो को गंवार और दोयम दर्ज़े का मानते थे। टोली से अलग होने के बाद मेरे पिता ने अपना अतीत और पहचान बदल ली। किसी आम यूरोपी की तरह उन्हें नौकरी और परिवार मिला। घृणा से भाग कर अब नकली समाज की स्वीकृति मिल गयी थी उन्हें…. पर अब वो अपनी टोली का भोलापन याद करते हैं। वो सादगी जिसमे रिश्ते दुनियादारी से ऊपर थे। उन रोमा भाषा के पन्नो में दूसरे विश्व युद्ध में नाज़ी और सहयोगी दलों द्वारा लाखो रोमा और सिंटी लोगो के नरसंहार के कुछ अंश है। लिखने वाले ने शायद मदद की आस में या मरने से पहले मन को तसल्ली देने के लिए यह सब लिखा।

“कितनी पीढ़ियों, कितने गुलाम देश, गंवार-पिछड़े लोगों की लाशो के ढेर पर बैठे बड़ी इमारतों और छोटे आसमान वाले ये देश, दुनिया भर में खून की नदिया बहा कर होंठ के किनारे सलीके से रेड वाइन पोछने वाले ये देश अगर सभ्य हैं तो मैं गंवार, पिछड़ा रोमा बंजारा ही सही….”

पिता ने अपनी पहचान सार्वजानिक रूप से सबके सामने उजागर कर दी। दिल से कुछ बोझ कम हुआ। आधुनिक सभ्य लोगो की लालच की दौड़ में पिछड़े रोमा बंजारे किसी देश को बोझ ना लगें इसलिए मेरे पिता ने अपने स्तर पर जगह-जगह जाकर उन टोलियों में जागरूकता और साक्षरता अभियान की शुरुआत की।

समाप्त!

– मोहित शर्मा ज़हन
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नोट – रोमानी समुदाय के लोग सदियों पहले उत्तर भारतीय हिस्सों से यूरोप और खाड़ी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में गए बंजारों के वंशज हैं। उनमे से कई आज भी अलग-अलग देशो में पिछड़ा जीवन जी रहे है। जो अपने लिए कुछ कर पाये वो सामाजिक शर्म या स्थानीय देशों की स्वीकृति के लिए अपनी पहचान बदल चुके हैं। यूरोपीय, दक्षिण अमरीकी व अन्य देशो को अब ये बंजारे बोझ लगते हैं, जिनके पूर्वज इन्ही देशो की गुलामी में पिसते रहे। रोमा लोगो के अपराध की दर पर हमेशा रोना रोया जाता है पर इनकी शिक्षा पर खर्च करने में नानी मर जाती है। अपने क्षेत्रों में दुनिया पर राज करने वाले चार्ली चैपलिन, एल्विस प्रेस्ली जैसे लोगों की रोमानी जड़ें थी। अगर मौका मिले तो उन देशो की अर्थव्यवस्था में अच्छा योगदान दे सकते हैं रोमा लोग। अगर? मौका? यह भी तो इतनी सदियों में उन देशो के नागरिक हैं? जो शायद अन्य प्रवासी लोगो से पहले इन देशो में आये पर कभी इन देशो ने उन्हें अपनाया ही नहीं। हाँ इन्हे जिप्सी, गंवार या कंजड़ जैसे नाम ज़रूर मिल गए।

बाइनरी मम्मी (लघुकथा) – लेखक मोहित शर्मा ज़हन

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नेत्र रोग डॉक्टर के पास, अपने 5 वर्ष के बच्चे के साथ चिंतित माँ-बाप बैठे थे।

माँ – “सीनू के पापा को मोटे वाला डबल-लेंस चश्मा लगा था तो इसे भी चश्मा ना लगे इसलिए नियमित गाजर का जूस, विटामिन और सारे घरेलु नुस्खे करती थी। फिर भी पता नहीं कैसे इसे इतनी कम उम्र में ही धुंधला दिखने लगा?”

डॉक्टर – “बच्चे को ज़रुरत से अधिक विटामिन A देने की वजह से उसे हाइपरविटामिनोसिस-ए विकार हो गया है। जिस से उसका लिवर, हड्डियां कमज़ोर हो गयी हैं और उसकी दृष्टि पर असर पड़ा है।”

महिला का पति सोचने लगा कि घर के अन्य सदस्यों में भी उसकी पत्नी ने किसी न किसी विटामिन का हाइपरविटामिनोसिस करवा रखा होगा। एक बार खुद पत्नी को किसी ने अनीमिया के लक्षण बता दिए, तबसे अब तक पता नहीं देश का कितना लोखंड खा चुकी होगी। तभी महिला की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा।

“आज से गाजर का जूस बंद!”

समाप्त!

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Art – Shivani Ramaiah
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“Aap karen to hunar…humare liye guzar-basar” (Toon with Tadam Gyadu)

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“Aap karen to hunar…humare liye guzar-basar”

Old unpublished toon (2013)….Pencils – Tadam Gyadu, Letters – Youdhveer Singh

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“Satirical Comics by emerging artist Tadam Gyadu and writer Mohit Trendster.

Tadam Gyadu was also recently credited as the penciler in ADRISHYA SHADYANTRA along with Hemant Kumar.

We wish him luck and success for his career and hope to see many great comics in future.”

दूसरों का देवता (कहानी) – #मोहित_ट्रेंडस्टर

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दो पडोसी बड़े कबीलों नर्मक और पालेसन के पुराने बैर में न जाने कितनी लड़ाइयां, खून हुए थे। मुख्य वजह थी दोनों कबीलों के धर्म और देवताओं का अलग-अलग होना। इसी दुश्मनी की नयी कड़ी में नर्मक के सेनापति और कुछ बलशाली सैनिको की टुकड़ी, रात के अँधेरे में, पालेसन के लोगो का मनोबल गिराने के लिए उनका धार्मिक स्थल तोड़ने और विशालकाय देव की मूर्ति खंडित करने पहुंचे। अमावस रात्रि किसी पालेसन वासी का धार्मिकस्थल के पास ना जाने की प्रथा के रूप में उन्हें मौका मिला था।

नर्मक सेनापति – “यह धार्मिक स्थल ढहा दो। जितना नुक्सान कर सकते हो करो।”

धार्मिकस्थल उम्मीद से अधिक कमज़ोर था इसलिए कुछ ही देर में ढहने लगा। इतनी जल्दी नर्मक दल के किसी सदस्य को स्थल ढहने की अपेक्षा नहीं थी। गिरते विशालकाय पत्थरों में सबको मौत दिखने लगी। सेनापति की वीरता पानी भरने चली गयी। तभी पालेसन देव की प्रतिमा इस कोण पर नर्मक दल पर गिरी की सब स्थल के बीचो बीच दबने के बाद भी बच गए।

पालेसन वासियों ने घायल नर्मक दल को बाहर निकाला और पालेसन प्रमुख ने उन्हें यह कहकर वापस नर्मक जाने दिया।…

“अंतर हम इंसान करते है, भगवान नहीं!”

नर्मक दल ने जाने से पहले पालेसन धार्मिकस्थल के दोबारा निर्माण में अपना श्रम दान दिया और अपनी जनता, प्रमुख को समझाने का वायदा किया।

समाप्त!

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