Sarkari Sanyas (Hasya Vyang Hindi Story)

सरकारी संन्यास (हास्य व्यंग)

[नोट – यह एक हास्य कहानी है, इसका उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। (स्वयं लेखक कई प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल हो चुके हैं।)]
आज संवाददाता विकास, झेलम कस्बे की बड़ी खबर को कवर करने आए थे।
रिपोर्टर विकास – ” आज झेलम कस्बे के सेलिब्रिटी, श्री डफली कश्यप जी ने 34 साल की उम्र में अपने साढ़े 13 साल के प्रतियोगी परीक्षा के करियर से सन्यास की घोषणा की। डेढ़ साल पहले ही डफली जी ने अपने कस्बे और आस-पास के गाँवों में सबसे ज़्यादा प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का रिकॉर्ड बनाया था। उनके संन्यास लेने के बयान से उनके परिजनों और दोस्तों में खुशी की लहर दौड़ गई है और उनकी सरकारी नौकरी की आस लगाए बैठी उनकी गर्लफ़्रेंड भी दूसरे बैकअप प्रेमी की और दौड़ गई है। आइए डफली जी से जानते हैं कि कब और कैसे उनकी ऐसी डफली बजी…”
रिपोर्टर विकास – आप अब तक कितनी प्रतियोगी परीक्षाओं में हिस्सा ले चुके हैं?

डफली – मैं 197 बार अलग-अलग भर्तियों के लिए लिखित परीक्षाओं में बैठ चुका हूं।
रिपोर्टर विकास – ओह! बेहतरीन! तो क्या आपके मन में नहीं आया कि दोहरे शतक का जादुई आंकड़ा छुआ जाए?

डफली – हा-हा…अब 99 के फेर में जितना घुसा जाए, उतना कम है। ऐसे तो मेरे दो-चार सीनियर ने 300 का आंकड़ा पार करने के बाद संन्यास लिया था। हां, मैंने करीब 250 फ़ॉर्म भरे होंगे। यह संख्या देखकर लगता है कि मैं दोहरा शतक आसानी से मार सकता था।
रिपोर्टर विकास – तो कहाँ चूक रह गई?

डफली – दरअसल, लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाएं रविवार के दिन होती हैं, इस वजह से कभी-कभी ऐसा हुआ कि एक ही दिन दो परीक्षा पड़ गईं। इसके अलावा कभी अपने आलस्य और लापरवाही, तो कभी परीक्षास्थल बहुत दूर के शहर होने की वजह से कुछ परीक्षाएं नहीं दे पाया।
रिपोर्टर विकास – तेरह साल से ज़्यादा के करियर में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?

डफली – देखिए, सरकारी नौकरी में चयन होने या न होने के अलावा एक और उपलब्धि होती है जो सालों तक तैयारी करने वाला हर अभ्यर्थी बताता है, लेकिन यह बहुत कम के हिस्से आती है। ज़्यादातर लोग इस बारे में गप्प मारते हैं। वह उपलब्धि है, परीक्षा या साक्षात्कार में चयन होने से सिर्फ़ एक नंबर से रह जाना। मेरा सौभाग्य है कि आम लोगों का गप्प…ऐसा मेरे तैयारी के करियर में एक नहीं दो बार हुआ। पहला शुरुआती दौर में जब मैं 22-23 साल का था, तो बैंक मैनेजर की लिखित परीक्षा में कट ऑफ़ से 1 अंक कम आया। यह परिणाम देखकर सिर्फ़ मैं ही नहीं, मेरा परिवार और दोस्त भी आश्वस्त हुए कि कोई न कोई सरकारी नौकरी मेरे हिस्से ज़रूर आएगी। दूसरा तीन साल पहले बीमा क्लर्क की परीक्षा में ऐसा हुआ था।
रिपोर्टर विकास – …और सबसे खराब प्रदर्शन कब रहा?

डफली – दो बार, एक बार हवा में दी गई परीक्षा में 150 में से 17 सवाल सही हुए थे और एक बार मुझसे ओएमआर शीट का क्रम गड़बड़ा गया था, तो 120 में से 9 अंक आए होंगे।
रिपोर्टर विकास – आपके प्रदर्शन पर और किन बातों का असर पड़ा?

डफली – जिओ मोबाइल क्रांति का मेरे जैसे करोड़ों युवाओं पर भारी असर पड़ा। सभी कंपनियों ने अपने डेटा और कॉल प्लान सस्ते कर दिए। बस उसके बाद तो गर्ल फ्रेंड से बात करने और दिन में 36 तरीके के ठुमके देखने में ही साल बीत गए। अब बेरोज़गारों को कोई दिनभर का काम मिलेगा, तो वो तो करेंगे ही न? पहले कहाँ सिर्फ़ फ़ोन पर बात करना ही खर्चीला शौक था। कुछ छोटी वजहें भी रहीं, लेकिन उनकी क्या बात करना….
रिपोर्टर विकास – अब बात छिड़ी ही है तो कर लीजिए।

डफली – छोटी मतलब एक परीक्षा पर असर डालने वाली। जैसे, कभी एग्ज़ाम के दिन तेज़ बारिश, बुखार होना या कभी तो खड़ूस परीक्षक द्वारा सू-सू जाने की अनुमति न देना। दो बार सू-सू रोकने के दबाव में आसान पेपर होते हुए भी अच्छे अंक नहीं आए। एक दफ़े तेज़ पहुंचने के चक्कर में टेबल का कोना पेट में लग गया बस पूरा पेपर अपने गुलगुले पेट तो थपथपाता रहा। वैसे ‘सेक्सी लेडीज़ इन दी एग्ज़ाम सेंटर’ को नक़ल कराने के चक्कर में भी कभी-कभी पेपर छूटे। हालांकि, बाद में न पेपर रहा, न ही वो लेडीज़।
रिपोर्टर विकास – इस दौरान आप कितने साक्षात्कारों वाले चरण तक पहुंचे?

डफली – हर लिखित परीक्षा के साथ साक्षात्कार नहीं होता, कई बार तो लिखित परीक्षा के साथ शैक्षिक डिग्रीयों के अंक जोड़े जाते हैं। फिर में मैंने करीब 2 दर्जन से ज़्यादा साक्षात्कार दिए। सरकारी नौकरी में सालों से सोए कुछ थकेले चेहरे देखने के अलावा इन इंटरव्यू में कुछ खास अनुभव नहीं रहा।
रिपोर्टर विकास – आपको नहीं लगता कि तैयारी करियर के शुरुआती दौर में 1 नंबर से रह जाने से जो लालच की लॉलीपॉप आपने चूसी वह कब की खत्म होने के बाद भी चूसी जाती रही।

डफली – निसंदेह! आपने कैसे जाना?

रिपोर्टर विकास – अरे, हम खुद भुक्तभोगी हैं। वैसे इस दौरान आपने कितने पैसों में आग लगाई?

डफली – जी, फ़ॉर्म भरने का पैसा, परीक्षा केंद्र जाना, कई बार दूसरे शहर ठहरना, कोचिंग, किताबें, नोट्स, प्रिंट आउट फलाने का कोई हिसाब नहीं। इस चक्कर में खैनी-सिगरेट की लत लगी सो अलग। दुनिया तो कहती है कि “टाइम इज़ मनी” और वह तो मैंने थोक के भाव उड़ाया है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि मेरे पड़ोसी के पापा ने बारहवीं के बाद उसका ट्रैक्टर का शोरूम खुलवाया था, अगर मैं तैयारी न करता तो आज मेरे पापा के पास ऐसे तीन शोरूम खुलवाने के पैसे होते।
रिपोर्टर विकास – अब आपके पापा किस चीज़ का शोरूम खुलवाएंगे?

डफली – उनके अरमानों और सब्र का शोरूम में उड़ा चुका हूं, अब वे मन में गाली दिए बिना मेरा चेहरा देख लिया करें इतना ही काफ़ी है।
रिपोर्टर विकास – डफली जी, अब आप क्या करेंगे?

डफली – सिस्टम को गाली देंगे, कहीं कोई कुत्ते-गाय-सांड सोते हुए मिलेंगे, तो बिना बात का गुस्सा उन्हें लात मारके निकालेंगे। 8-10 हज़ार महीना वाली कोई एंट्री लेवल प्राइवेट नौकरी करेंगे और सोचेंगे कि यह नौकरी अगर 14 साल पहले शुरू कर देता, तो अभी 80 हज़ार कमा रहा होता और कितना जमा कर लिया होता फलाना …
रिपोर्टर विकास – क्या कभी आपकी वापसी भी हो सकती है?

डफली – हो तो दुनिया में कुछ भी सकता है। अगर कोई आसान एग्ज़ाम हुआ जिसमें मेरी उम्र के लोग शामिल हो सकते हैं, तो देख लेंगे।
रिपोर्टर विकास – “हमारी टीम आपको सुखद रिटायरमेंट विश करती है, आशा है आप जीवन के अन्य क्षेत्रों में ऐसे ही कीर्तिमान बनाएं।”

डफली – “@#!$%&@”
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#ज़हन

Gum Chot (Hindi Story) – Mohit Sharma Zahan

गुम चोट (कहानी)

शारदा ने अंग्रेजी फ़िल्मों में देखा था कि इस तरह मनोचिकित्सक या मनोविज्ञानी की देखरेख में कई लोग समूह में बैठते हैं। अपने जैसे अनजान लोगों के बीच बैठकर लोग अपने मन की बातें, दुख-दर्द बांटते हैं और यह प्रक्रिया मानसिक रूप से ठीक होने में उनकी मदद करती है। अक्सर कई बार जो बातें वे खुद को जानने वाले लोगों के बीच नहीं कर पाते, उन बातों को किसी अनजान व्यक्ति के सामने बताना आसान हो जाता है। अपनी पुरानी सहेली रूबी की सलाह पर वह अपने गंभीर अवसाद और परिवार व समाज से उचटते व्यवहार को ठीक करने के लिए एक मनोचिकित्सक के पास जाने लगी। वहीं कुछ दिन बाद इन साप्ताहिक सेशन की शुरुआत हुई जहां शहर और बाहर के लगभग 2 दर्जन लोग साथ बैठकर अपनी समस्याओं के बारे में दूसरों को बताने लगे और दूसरों का मर्म सुनने लगे। पहले कुछ हफ्ते शारदा उन 5-7 चुप लोगों में थी जो अपनी कहने के बजाय दूसरों की व्यथा सुनना चाहते थे। फिर कुछ प्रोत्साहन के बाद एक सेशन में शारदा ने बोलना शुरू किया…कुछ इस तरह जैसे वह इतने दिनों की भड़ास निकाल रही हो।

“मेरा नाम शारदा कमल है। अभी इस से ज़्यादा जानकारी देना असहज लग रहा है। आप में से कुछ लोगों के बारे में जानकर मुझे यह शक है कि मेरी परेशानी कितनी बड़ी है या उसे परेशानी कहा भी जाना चाहिए या नहीं। फ़िल्मों की तरह मुझमें ऐसी क्षमता नहीं है कि एक बार में अपने जीवन का सार सुना दूं, जो मन को कचोटती बातों में इस समय याद आ गई वही साझा कर रही हूँ। स्कूल के दिनों में मेरी कुछ सहपाठी जिनको मैं सहेली मानती थी उन्होंने मुझे मानसिक रूप से काफी कमज़ोर किया जिसका असर मुझपर अब तक है। उनमें से एक नाम श्वेता अब भी मुझे रात में करवटें बदलने पर मजबूर कर देता है। क्लास 5 में नए स्कूल में पहुंची तो अंदर बहुत डर था। टीचर ने जिन लड़कियों के साथ बैठाया, फिर लगातार 4-5 साल उन्हीं के साथ बैठना हुआ। पहले छोटी बातों पर श्वेता के ताने शुरू हुए, मुझे पलट कर ठीक से जवाब देना नहीं आता था। घर पर किसी ने ऐसा सिखाया ही नहीं था। पापा-माँ तो यही बताते थे कि दूसरों से अच्छा व्यवहार करोगे तो सब तुमसे अच्छे से रहेंगे। फिर कभी मेरी ड्रेस पर इंक गिरा देना, किताब से पन्ने निकाल लेना जैसी शैतानियां होने लगी। श्वेता के साथ-साथ ‘मेरे ग्रुप’ की अन्य लड़कियां भी वैसा ही करनी लगी। धीरे-धीरे मुझे इस सब की इतनी आदत हो गई और पता ही नहीं चला कि यह गलत है। शायद ऐसा ही हर पीड़ित के साथ होता है, उसे दुख सहने, आहत होने की आदत पड़ जाती है। 3 साल बाद जब किशोरावस्था आई, तो उन सबने मेरे चेहरे और शरीर का मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। उस उम्र से हम सभी गुज़र चुके हैं और तब आत्मविश्वास टूटने का मतलब है शायद ज़िन्दगी भर अधूरे से बन कर रह जाना। मुझे खुद से नफरत होने लगी। मैं श्वेता और पूनम जैसी क्यों नहीं दिखती? मेरे शरीर में बदलाव इतना धीरे क्यों हो रहे हैं? क्या कमी है मुझमें? जैसे सवालों ने एक अच्छी छात्रा को औसत बना दिया था। उस समय किसके पास जाती और क्या शिकायत करती? अपने दर्द को अपने लिए भी जब शब्दों में ही नहीं ला पा रही थी! किसी को बताकर भी क्या कर लेती? समाज का जवाब होता है – “यह तो बचपन में सबके साथ होता है”, “यह तो सामान्य बात है”, “तुम भी वैसी बन जाओ”, “उनका सामना करो”, “यह कोई अपराध थोड़े ही है”…सही बात है छोटे बच्चों की छोटी बातें अपराध में कहाँ गिनी जा सकती हैं। ऊपर से टीचर, अभिभावकों की नज़र में…शायद मेरे बाल मन के लिए भी वे सभी मेरी सहेलियां थी। एकदम से उठकर दूसरी जगह कहाँ बैठती? टीचर और बाकी क्लास को क्या समझाती? अलग बैठकर बाकी पीरियड बच जाती, लेकिन इंटरवल और फ्री पीरियड में श्वेता और गैंग से कैसे बचती?

समय बीत रहा था और मैं खुद में सिमटती जा रही थी। मेरी पढ़ाई, सेहत का स्तर काम चलाऊ चलता रहा। फिर एक दिन श्वेता ने कुछ नया करने की ठानी। उसने छुट्टी से पहले मेरी फ़्रॉक के पीछे लाल इंक डाल दी। साइकिल स्टैंड से स्कूल से बाहर जाने में काफी समय लगता और कुछ देर बाद एक लड़की ने मुझे बताया कि मेरी फ़्रॉक पर माहवारी का लाल धब्बा है। अब तक जाने कितने बच्चों की नज़रों और हंसी को नज़रें झुकाये नज़रअंदाज़ कर रही थी, लेकिन आज लग रहा था कुछ बात तो है। जब मैंने फ्रॉक पर स्वेटर बांधा तो श्वेता और सहेलियों के हँसने की आवाज़ आई। अब तक कितने ही लड़के मुझे देख चुके होंगे। मैं शर्म के मारे तेज़ी से स्कूल से निकल गई और 2 दिनों तक स्कूल नहीं गई…शायद रोती रही। 

उम्र के किसी पड़ाव पर जो बात हमें बहुत छोटी लगती है, वही उम्र के किसी दूसरे मोड़ पर जीना मुहाल कर देती हैं। इनके अलावा बात-बात पर ताने मारने वाले शिक्षकों-शिक्षिकाओं का कैटेलिस्ट अलग जुड़ रहा था। ऐसा लगता था जैसे घर या अपनी स्थिति की सारी भड़ास वे लोग बच्चों पर निकालते थे। एक बच्ची बड़ी उम्मीद से रोज़ सुकून की सांस खोजती थी और रोज़ उसे नियति से वही जवाब मिलता था। आखिर इस जेल से वह जाए कहाँ? ऐसे ही एक दिन मेरे घरवालों का मज़ाक बनाए जाने का मैंने विरोध किया। यह बात श्वेता को इतनी लगी कि वह लगातार उनपर भद्दे मज़ाक करने लगी जिससे साथ की लड़कियां भी असहज होने लगीं। एक सीमा बाद इतने समय का गुस्सा उबाल पर आया और आखिरकार मैंने टूटी खिड़की की लोहे की डंडी उसके सिर में दे मारी। वह बड़ी नहीं थी पर श्वेता के सिर पर ऐसे कोण पर लगी थी कि उसके माथे से खून फ़ूट पड़ा।

जो बातें अब समय के मरहम से कुछ मंद पड़ी हैं उन्हें तब किसी को इतनी आसानी से समझा पाना मेरे लिए नामुमकिन था। मैं तब समझाने की जो कोशिशें की भी उनका उल्टा असर हुआ। इसके बाद तो जैसे स्कूल, सहपाठियों और परिवार सबकी नज़र में मैं कोई उग्रवादी बन गई। वर्षों तक उनके सामने या मेरे हाव-भाव से झलक रहा मेरा मानसिक उत्पीड़न किसी को नहीं दिखाई दिया…हाँ, लेकिन अब मैं अछूत, सलाख मारने वाली लड़की बन गई। पता नहीं क्यों इस घटना के बाद भी मैं उसी स्कूल में पढ़ती रही। सबसे अलग बैठी बचपन-किशोर काल जीने के बजाय सूखी आँखों से औपचारिकता निभाती हुई। वैसे और भी कुछ वजहें रही होंगी पर यह भी एक बड़ी वजह थी जो मैं सामाजिक रूप से थोड़ी पिछड़ी, दबी सी रही। कॉलेज, नौकरी की तैयारी, नौकरी और शादी के बाद भी हर बार लोगों से मिलना ही एक डर जैसा होता है। काश मेरे जीवन का शुरुआती पड़ाव प्रोत्साहन भरा और घुटन वाला न होता, तो अगले पड़ावों के लिए मैं बेहतर ढंग से तैयार हो पाती और उन्हें पूरी तरह, बिना डरे जी पाती।

श्वेता की चोट तो हफ़्ते भर में ठीक हो गई थी पर मेरी चोट इतने सालों बाद भी ताज़ा है…और अब भी किसी को नहीं दिखती।

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Phir kabhi sahi…

कुछ महीने पहले स्कूल की एक कॉपी मिली…
उंगलियां पन्ने पलटने को हुई।
दफ़्तर को देर हो रही थी,
उंगलियों से कहा फिर कभी सही…

कॉपी ने कहा ज़रा ठहर कर तो देख लो,
9वीं क्लास की चौथी बेंच से झांक लो!
“फिर कभी सही”

आज याद आया तो देखा…
कॉपी रूठ कर फिर से खो गई…

#zahan

Sahityik Samalochna ki Pustak mein…

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“किन्नर समाज – संदर्भ – तीसरी ताली” (साहित्यिक समालोचना) – वाणी प्रकाशन की किताब में मेरी कहानी “किन्नर माँ” को शामिल कर उसपर अपनी राय देने के लिए लेखिका पार्वती कुमारी जी का आभार। हर बार की तरह बस एक शिकायत कि मेरा काम या नाम कहीं आता है, तो उस समय लेखक, प्रकाशक आदि के बजाय कई महीनों या सालों बाद कोई मित्र, प्रशंसक जानकारी देता है। खैर, कोई बात नहीं पार्वती जी का लिटरेरी क्रिटिसिज़्म में ये प्रयास मुझे अच्छा लगा। उन्हें और टीम को बधाई! #ज़हन

Rikshaw waali Chachi (Hindi Story) #zahan

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“डॉक्टर ने तेरी चाची के लिए क्या बताया है?”

मनोरमा ने अपनी देवरानी सुभद्रा के बारे में अपनी 17 वर्षीय बेटी दिव्या से पूछा।

“मेजर डिप्रेशन बताया है।”

मनोरमा ने तंज कसा, “हाँ, उस झल्ली सी को ही हो सकता है ऐसा कुछ!”

दिव्या अपनी चाची के लिए ऐसे तानों, बातों से उलझन में पड़ जाती थी।

हर शाम छत पर टहलना दिव्या को पसंद था। पास में पार्क था पर शायद उसकी उम्र अब जा चुकी थी। छत पर उसकी फेवरेट निम्मी दीदी मिल जाती थी। वो दिव्या के संयुक्त परिवार से सटे पी.जी. में  रहकर स्थानीय कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापक थी। अक्सर दिनचर्या से बोर होती निम्मी भी दिव्या के परिवार की बातों में रूचि लेती थी। घर के लगभग 2 दर्जन सदस्यों से ढंग से मिले बिना भी निम्मी को उनकीं कई आदतें, किस्से याद हो गये थे। सुभद्रा चाची के गंभीर अवसाद में आने की ख़बर से आज वो चर्चा का केंद्र बन गयीं।

दिव्या – “बड़ा बुरा लगता है चाची जी के लिए। बच्चा-बड़ा हर कोई उनसे ऐसे बर्ताव करता है…”

निम्मी ने गहरी सांस ली, “औरत की यही कहानी है।”

दिव्या – “अरे नहीं दीदी, यहाँ वो वाली बात नहीं है। सुभद्रा चाची से छोटी 2 चाचियाँ और हैं। मजाल है जो कोई उनको ऐसे बुला दे या उनके पति, दादा-दादी ज़रा ऊँची आवाज़ में हड़क दें। तुरंत कड़क आवाज़ में ऐसा जवाब आता है कि सुनाने वाले की बोलती बंद हो जाती है। किसी ताने या बहस में उनके सख्त हाव भाव….यूँ कूद के पड़ती हैं जैसे शहर की रामलीला में वीर हनुमान असुर वध वाली मुद्रा बनाते हैं। इस कारण उनकी बड़ी ग़लती पर ही उन्हें सुनाया जाता है बाकी बातों में पास मिल जाता है। वहीं सुभद्रा चाची को छोटी बातों तक में कोई भी सुनाकर चला जाता है। चाचा और दादी-दादा हाथ भी उठा लेते हैं। अब ऐसे में बड़ा डिप्रेशन कैसे ना हो?”

निम्मी ने हामी में सिर हिलाते कहा – “हम्म…यानी तुम्हारी सुभद्रा चाची घर की रिक्शावाली हैं।”

दिव्या चौंकी – “हैं? रिक्शेवाली चाची? नहीं समझ आया, दीदी।”

निम्मी – “अरे, समझाती हूँ बाबा! देखो, छोटी बात पर कार या बाइक से उतर कर रिक्शेवालों को थप्पड़ मारते, उन्हें पीटते लोग आम दृश्य है। ऐसे ही मज़दूर, अन्य छोटे कामगारों को पीटना आसान है और लोग अक्सर पीटते भी हैं। वहीं अगर कोई बड़ी बात ना हो तो बाकी लोगो को पीटना जैसे कोई कार में बैठा व्यापारी या बाइक चला रहा मध्यमवर्गीय इंजीनियर मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ‘बड़े लोगों’ की एक सीमा बन जाती है उनके हाव भाव, पहनावे, बातों से…यह सुरक्षा कवच ‘छोटे लोगों’ के पास नहीं होता। वो तो बेचारे सबके पंचिंग बैग होते हैं। अन्य लोगो के अहंकार को शांत करने वाला एक स्थाई पॉइंट। ऐसा ही कुछ सीधे लोगों के साथ उनके घर और बाहर होता है। कई बार तो सही होने के बाद भी ऐसे लोग बहस हार जाते हैं।”

दिव्या – “ओह! यानी अपनी बॉडी लैंग्वेज, भोली बातों से चाची ने बाकी सदस्यों को अपनी बेइज़्ज़ती करने और हाथ उठाने की छूट दे दी जो बाकी महिलाओं या किसी छोटे-बड़े सदस्य ने नहीं दी। अगर चाची भी औरों की तरह कुछ गुस्सा दिखातीं, अपने से छोटों को लताड़ दिया करती और खुद पर आने पे पूरी शिद्दत से बहस करती तो उन्हें इज़्ज़त मिलती। फ़िर वो डिप्रेस भी ना होती। दीदी, क्या चाची जैसी नेचर होना अभिशाप है?”

निम्मी ने थोड़ा रूककर सिर ना में हिलाया पर उसका मन हाँ कह रहा था।

समाप्त!

– मोहित शर्मा ज़हन

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Ullas ki Aawaz (Hindi Story) #Zahan

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जीव विज्ञानी डॉक्टर कोटल और उनके नेतृत्व में कुछ अनुसंधानकर्ताओं का दल प्रशांत महासागर स्थित एक दुर्गम द्वीपसमूह पर कई महीनों से टिका हुआ था। उनका उद्देश्य वहाँ रहने वाले कबीलों में बेहतर जीवन के लिए जागरूकता फैलाना था। स्थानीय धर्म सूमा के रीती-रिवाज़ों में हज़ारों कबीलेवासी अपनी सेहत और जान-माल से खिलवाड़ करते रहते थे। इतने कठिन और अजीब नियमों वाले सूमा धर्म में जागरूकता या बदलाव के लिए कोई स्थान नहीं था। अलग-अलग तरीकों से कबीले वालों को समझाना नाकाम हो रहा था। वीडियो व ऑडियो संदेश, कबीलों के पास खाद्य सामग्री या दवाई गिराना, रिमोट संचालित रोबॉट से संदेश आदि काम जंगलियों को जागरूक करने के बजाय भ्रमित कर रहे थे।

जब हर प्रयास निरर्थक लगने लगा तो डॉक्टर कोटल ने स्वयं जंगलियों के बीच जाकर उन्हें समझाने का फैसला किया। इस जोखिम भरे विचार पर दल के बाकी सदस्य पीछे हट गये। किसी तरह डॉक्टर केवल अनुवादक को अपने साथ रहने के लिए समझा पाये। बिना सुरक्षा के जंगली सीमा में घुसते ही दोनों को बंदी बना लिया गया। कुछ कबीलों की संयुक्त सभा में डॉक्टर और अनुवादक को एक खंबे से बाँध कर उनकी मंशा और पिछले कामों के बारे में पूछा गया।

डॉक्टर ने अपनी तरफ से भरसक कोशिश की, और अपनी बात इस तरह ख़त्म की – “….हम आपके दुश्मन नहीं हैं। बाहर की उन्नत दुनिया में यहाँ फैले कई रोगों के इलाज और परेशानियों के हल हैं। एक बार हमें मौका देकर देखिए।”

अपनी जान के लिए कांपते और डॉक्टर को कोसते अनुवादक ने तेज़ी से कोटल की बात को जंगलियों की भाषा में दोहराया।

जवाब में कबीलों के वरिष्ठ सदस्य ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। उन्होंने अनुवादक को बताया की सूमा धर्म सबसे उन्नत है और बाकी बातें व्यर्थ हैं। डॉक्टर कोटल को सूमा के ईश्वर ने उन सबकी परीक्षा लेने के लिए भेजा है।

अचानक अंतरिक्ष से गिरा एक विशालकाय पत्थर डॉक्टर कोटल और उनके अनुवादक पर बरसा और दोनों की मौके पर ही मृत्यु हो गयी। कोई बड़ी उल्का पृथ्वी का वायुमंडल पार करते हुए बड़े टुकड़ो में उस द्वीपसमूह पर बरसी थी।

इस घटना में कोई जंगली नहीं मरा। उन सबका विश्वास पक्का हुआ कि उनके धर्म से ना डिगने के कारण वो ज़िंदा रहे जबकि बाहरी अधर्मी लोग मारे गये। सभी उल्लास में “हुह-हुह-हुह…” की आवाज़ निकालकर नृत्य करने लगे।

जंगली नहीं देख पाये कि उल्का के कई टुकड़े सुप्त ज्वालामुखी में ऐसे कोण पर लगे की वह जाग्रत होकर फट गया। गर्म लावे का फव्वारा द्वीपसमूह पर आग की बारिश करने लगा। कुछ देर पहले तक सूमा धर्म के गुणगान गाते जंगली जान बचाकर भागने लगे। अधिकांश गर्म बरसात में मारे गये और जो ओट में बच गये उनकी तरफ आग की नदी तेज़ी से बढ़ रही थी। फिर भी अगर कोई बच गया तो उल्कापिंडो से समुद्र में उठी सुनामी कुछ मिनटों में दस्तक देने वाली थी। ज़मीनी सतह से काफी ढका होने के कारण दबाव में ज्वालामुखी भी उल्लास में “हुह-हुह-हुह…” की आवाज़ निकाल रहा था…शायद मन ही मन सूमा के ईश्वर का गुणगान और नृत्य भी कर रहा हो।

समाप्त!
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Hindi Quotes #mohit_trendster

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*) – अपने अनुभव, प्रतिभा और जो भी जीवन में अर्जित किया उसका मोल समझें पर आत्ममुग्धता से बचें। सामने वाले व्यक्ति को परसों पैदा हुआ ना मानें।

*) – निष्पक्ष होना दुनिया की सबसे कठिन कला है।

*) – किसी की सहनशीलता को उसकी कमज़ोरी मत समझें। इलास्टिक को इतना खींचने की आदत ना डालें कि वो ऐसी घड़ी में टूटे जब आपको उसकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत हो।

*) – इतिहास कभी एक नहीं होता। इतिहास नदी की धाराओं सा इधर-उधर बह जाता है और लोग अपनी विचारधारा के हिसाब से उन धाराओं को पकड़ कर अपना-अपना इतिहास चुन लेते हैं। जो मानना है मानो पर मानने से पहले सारी धाराओं का पानी ज़रूर पीकर देखना….जिस पानी की आदत नहीं उसे पीकर शायद तबियत बिगड़ जाए पर दिमाग सही हो जाएगा।

*) – सुरक्षित राह पर जीवन को तीन से पौने चार बनाने में बाल सफ़ेद हो जाते हैं और कोई दांव लगाकर तीन से तेईस हो जाता है। अब पौने चार से शून्य दूर होता है या तेईस?

*) – सही, सकारात्मक और बिना किसी विचारधारा के प्रभाव में आकर किये गए सामाजिक अनुकूलन से समाज की अनेकों कुरीतियों से छुटकारा पाया जा सकता है।

*) – अक्सर भूल जाने लायक छोटी जीतों के गुमान में लोग याद रखने लायक बड़ी बाज़ी हार जाते हैं।

*) – कला के क्षेत्र में केवल यह सोचकर खुद को रोक लेना सही नहीं कि ऐसा पहले हो चुका होगा। शायद हो चुका हो….पर आपके नज़रिये और अंदाज़ से तो नहीं हुआ ना!

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पुरुष आत्महत्या का सच (कहानी) #ज़हन

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Art – L. Naik

पार्क में जॉगिंग करते हुए कर्नल शोभित सिंह अपने पडोसी लिपिक शिवा आर्यन से रोज़ की तरह बातें कर रहे थे। उनकी वार्ता में एक बात से दूसरी बात और एक विश्लेषण से कहीं और का मुद्दा ऐसे बदल जाते थे जैसे किशोर टीवी चैनल बदलते हैं। दोनों के लिए अपनी चिंता, मानसिक दबाव कम करने का इस से बेहतर साधन नहीं था। जॉगिंग के बाद जब दोनों बेंच पर बैठकर अखबार पढ़ने लगे तो एक रिपोर्ट ने उनका ध्यान खींचा।

शिवा आर्यन – “हम्म….औरतों की तुलना में मर्द क्यों दुगनी संख्या में सुसाईड करते हैं? इसका जवाब मुझे पता है।” (अखबार साइड में रखकर) अरे आप तो सीरियस हो गए…गलत टॉपिक छेड़ दिया लगता है। कल के क्रिकेट मैच से बात शुरू करनी चाहिए थी। चलो कोई नहीं, चिल्ल कर के बैठो सर! लोड मत लो, मैं यहाँ अपनी दुखभरी कहानी से आपको परेशान नहीं करने वाला। बस अपने उदाहरण से यह मुद्दा समझा रहा हूँ। मेरी लाइफ नार्मल है, बचपन से लेकर अब तक हर बात साधारण रही है। मैं, मेरा परिवार, मेरी क्लर्क की नौकरी, मेरी पत्नी, मेरा मकान, मेरा रूटीन….सब कुछ आर्डिनरी।

जब किसी घर में लड़का पैदा होता है तो माँ-बाप की आँखों में ढेर सारे सपने पलने लगते हैं कि हमारा लाडला पता नहीं कौनसी तोप उखाड़ेगा, कलेक्टर बनेगा, दुनिया बदल देगा फलाना-ढिमका। बच्चे के बड़े होने के साथ कुछ सपने मर जाते हैं और कुछ ज़बरदस्ती उसपर थोप दिए जाते हैं कि कम से कम इतना तो करना ही पड़ेगा। उन सपनो को बस्ते में ढोकर वो बच्चा अपने जैसे करोड़ो बच्चों से रेस लगता है। तब उसे पता चलता है कि सपनो को ज़िंदा रखने के लिए करोड़ो में सिर्फ अच्छा होना काफी नहीं बल्कि असाधारण होना पड़ता है। इस रेस में करोड़ो बच्चो को हराकर और करोड़ो से हारकर वो बच्चा मेरे जैसी साधारण ज़िन्दगी वाली स्थिति में पहुँच जाता है। पहले माँ-बाप के सपने मरते देखता हूँ, फिर शादी के बाद मेरी पत्नी की आँखों के सपनो मुझे सोने नहीं देते थे। ऐसा नहीं कि मैं मेहनत नहीं करता, अक्सर ओवरटाइम करता हूँ – टाइम पर बोनस पाता हूँ पर 19-20 मेरी नौकरी की एक रेंज है, आगे भी रहेगी और वो रेंज मेरे अपनों के सपनो की रेंज से बहुत नीचे है। समय के साथ मेरी तरह सबने एडजस्ट करना सीख लिया। सबने सिवाय मेरी नन्ही गुड़िया ने! उसके लिए मैं टीवी पर आने वाले सुपरहीरोज़ से बढ़कर था जो दुनिया में कुछ भी कर सकता है। एक ऐसा हीरो जिसके इर्द-गिर्द उसकी छोटी सी दुनिया बसी थी। जैसे-जैसे गुड़िया बड़ी हो रही है, दुनिया के आईने में उसका सुपरहीरो पापा हर दिन छोटा होता जा रहा है। अब मुझसे उसकी आँखों में मर रहे सपने देखे नहीं जाते। सबसे आँखें चुरा सकता हूँ पर अपनी गुड़िया से ऐसी आदत डालने में बहुत दर्द होगा, ऐसा दर्द जो किसी से बाँट भी नहीं सकता। यह घरेलु हिंसा की तरह दिखने वाले ज़ख्म नहीं है, अंदर घुट-घुट कर कलेजा छलनी करने वाले घाव हैं। मैं आत्महत्या नहीं करूँगा…साला हिम्मत के मामले में भी आर्डिनरी हूँ। पर समझ सकता हूँ कुछ आर्डिनरी लोगो की घुटन, अंदर के ज़ख्म इतना दर्द देते होंगे कि उन्हें सुसाइड के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता होगा।

इसका मतलब ये मत लगाना कि सपने मार दो। बस अपने बाप, भाई, पति, प्रेमी को सपनो से हारने मत दो, उसको बताओ कि चाहे जो हो – आपके जीवन की पिक्चर का हीरो वो है और रहेगा। एक सपना मरेगा तो 10 नए आ जाएंगे पर कहीं किसी गुड़िया का हीरो चला जाएगा तो वो किसके कंधो पर चढ़कर सपने देखेगी…वो तो सपनो से ही डरने लगेगी।”

समाप्त!

– मोहित शर्मा ज़हन

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स्लीपर क्लास पत्नी, फर्स्ट ए.सी. पति (कहानी)

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कुंठा अगर लंबे समय तक मन में रहे तो एक विकार बन जाती है। कुंठित व्यक्ति यूँ ही गढ़ी बातों को बिना कारण विकराल रूप दे डालता है। कुछ ऐसा ही हाल विकल को अपने मित्र और बिज़नस पार्टनर चरणप्रीत का लग रहा था। एक बार व्यापार से जुड़े मामले में दोनों मित्र कार से दूसरे शहर जा रहे थे। सफर 6-7 घंटे का था और एक-डेढ़ घंटो में ही दोनों कार के स्टीरियो में पड़ी एकमात्र सीडी के गानो से ऊब गए थे। चरणप्रीत ने रेडियो ट्यून करने की कोशिश की पर बड़ी खरखराहट के साथ आ रही आवाज़ सुनकर उसने रेडियो बंद कर दिया। फिर समय काटने के लिए और जगे रहने के लिए विकल और चरणप्रीत बातें करने लगे। वैसे समय तो दोपहर का था पर चरणप्रीत को इतनी लंबी ड्राइविंग की आदत नहीं थी।

एक बात से दूसरी बात निकली और चरणप्रीत के घर की बात होने लगी। विकल ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा। “भाई! बुरा मत मानना पर भाभी को लेकर तेरी एक आदत नोट की है।”

चरणप्रीत चौंका कि आखिर उसके जीवन की ऐसी कौनसी बात दिख गई विकल को, उत्सुकतावश तुरंत ही वह बोल पड़ा -“पहले बात बता फिर सोचूंगा कि उसपर बुरा मानना है या नहीं…अरे मज़ाक कर रहा हूँ! तू तो अपना याडी है, तेरी बात का बुरा मानूँगा तो फिर हो लिया काम।”

विकल – “मैंने देखा है तू भाभी के साथ पराया सा बर्ताव करता है। जैसे खुद तू पर्सनल ट्रिप, बिज़नस ट्रिप में प्लेन से जाता है पर पिछले महीने और उस से पहले भी मैंने देखा कि तूने भाभी को ट्रेन में मुम्बई से उनके घर मैनपुरी भेजा। अपने जन्मदिन पर ऑफिस के चपरासी तक को तूने होटल में पार्टी दी थी और अपने घर तू किशन चाइनीज कार्नर से सस्ता खाना पैक करवाकर ले गया था। ये तो वो कुछ बातें जो मुझे याद आ रहीं है ऐसे छोटा-मोटा कुछ न कुछ दिखता है तेरा…”

चरणप्रीत ने गहरी सांस ली और बोला। “थैंक यू भाई, मुझे लगा यह बोझ हमेशा दिल में ही रह जाएगा। अच्छा लगा तूने इतना ध्यान दिया। कभी कोई सीरियल, एड या किताब में देखना अरेंज मैरिज केवल लड़कियों की समस्या की तरह दिखाई जाती है…जैसे हम लड़को को तो सब मनमुताबिक मिल जाता है, कोई समझौता नहीं करना पड़ता। जब मेरी शादी हुई तब मैं तैयार नहीं था पर घरवालो को समझाना मुश्किल हो रहा था। मैं कुछ समय और बिना ज़िम्मेदारी के पढ़ना चाहता था, कुछ बेहतर करना चाहता था पर किसी को मेरी बात समझ नहीं आयी? तो मेरी औकात के हिसाब से शादी हो गई। जैसे मान ले मैं तब रेलवे का ‘स्लीपर क्लास’ डब्बा था और मेरी औकात के अनुसार एक ‘स्लीपर क्लास’ टाइप लड़की से मेरी शादी हुई। समय के साथ धूप में खाल जलाकर, धुएं से धुँधले हुए शहर में अपने फेफड़े ख़राब कर, बीमारियां पालकर मैंने बिज़नस बनाया और आज मैं स्लीपर क्लास की औकात से ऊपर आकर ‘फर्स्ट क्लास ए.सी.’ डब्बा बन गया पर मेरी पत्नी तो स्लीपर क्लास ही रही ना, जब उसने स्लीपर का टिकेट लेकर मुझसे शादी की तो उसे किसलिए मैं फर्स्ट ए.सी. में सफर कराऊँ?”

विकल – “हाँ तेरे साथ गलत हुआ। लाइफ इज नॉट फेयर, पर यार जीवन में कदम-कदम पर हर किसी के साथ गलत होता है। तू समाज का बदला अपनी जीवनसंगिनी से क्यों ले रहा है? भाभी तो बेचारी कभी शिकायत नहीं करती, नहीं तो कोई और होती तो तू शायद चैन से सो तक नहीं पाता। यह कोई खेल थोड़े ही है कि जीवन में तेरे विरुद्ध कुछ पॉइंट्स हुए तो तू अपनी शर्तो पर जीवन से बदला लेकर उसके विरुद्ध पॉइंट्स बनाएगा। अपनों को बेवजह दुश्मन मत बना, कुंठा के पर्दे हटाकर एक बार उनकी आँखों का समर्पण, प्रेम देखना वो तुझसे शादी करते समय भी फर्स्ट ए.सी. था और अब भी!”

विकल की बातों से चरणप्रीत की आँखें नम होने को थी इसलिए उसने बहाने से अपना मुँह फेर लिया।

समाप्त!

– मोहित शर्मा ज़हन

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सुविधानुसार न्यूक्लीयर परिवार (कहानी)

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अपने छोटे कस्बे से दूर सपनो के सागर में गोते लगाता एक रीमा और मनोज का जोड़ा बड़े शहर के कबूतरखाना स्टाइल अपार्टमेंट में आ बसा। जितना व्यक्ति ईश्वर से मांगता है उतना उसे कभी मिलता नहीं या यूँ कहें की अगर मिलता है तो माँगने वाले की नई इच्छाएं बढ़ जाती है। कुछ ऐसा ही इस दम्पति के साथ हुआ, सोचा कितना कुछ और हाथ आया ज़रा सा…वैसे यह ‘ज़रा सा’ भी करोडो के लिए किसी सपने जैसा होता पर कहता हैं ना 99 का फेर मौत तक पीछा नहीं छोड़ता।

दोनों को ही अपने बड़े संयुक्त परिवारों से परहेज था। तीज-त्यौहार पर घर जाना या घर से किसी का इनसे मिलने आना इन्हें हफ़्तों पहले ही चिंता में डाल देता था। मनोज के घर को दोनों सर्कस कहते थे और रीमा के घर को बाराबंकी बाजार। इन दोनों को लगता था कि परिवार के लोग इनके कभी काम नहीं आते जबकि ये हर महीने – महीने में उनका कोई छोटा-मोटा काम कर देते थे। जबकि ऐसा था नहीं, बस सुविधानुसार जब इनसे जुड़ा कोई काम जैसे मकान की रजिस्ट्री, गाडी फंसने पर थाने फ़ोन कर छुड़वाना आदि किसी घरवाले द्वारा किया जाता था तो ये दोनों उसे काम मानते ही नहीं थे।

ऑफिस की तरफ से वनकल वन्य अभयारण्य में घूम रहे रीमा-मनोज का उनके गाइड और ड्राइवर समेत एक उग्रवादी संघठन द्वारा अपहरण कर लिया जाता है। उस संघठन ने हाल ही में अपनी माँगो के लिए कुछ हत्याएं की थी। बंधक अपने भाग्य को कोस ही रहें होते हैं कि तभी एक आवाज़ आती है….

“अरे फूफा जी! चरण स्पर्श, कैसे हो आप?”
मनोज की फ्रीज़ मुद्रा अभी टूटने में समय लगता तो रीमा बोल पड़ी – “जीता रह कुन्नू बेटे! कितना बड़ा हो गया तू…16 साल का!”
कुन्नू – “आप लोग यहाँ कैसे?”
मनोज – “बेटा तेरी बुआ जी ने पता नहीं कौन सी सरिता-गृहशोभा में सेकंड हनीमून का पढ़ लिया तबसे मेरे कान खा लिए। फिर ऑफिस से यह टूर मिला तो आ गए। तू इस सब में….”

रीमा ने अपने पति को इतनी जोर की कोहनी मारी कि उसके मुँह से आगे की बात निकली ही नहीं। ज़्यादा बात होती उस से पहले ही वहाँ नक्सल विरोधी फ़ोर्स का हमला हो गया। डिप्टी कमांडर कुन्नू ने अपनी बुआ जी और फूफा जी को खतरे से अपनी जान पर खेल कर निकलवाया। इस गोलाबारी में रीमा घायल हो गयी, घायलो को लाया गया शहर के अस्पताल। यहाँ डॉक्टर मनोज के कजिन निकले जिस वजह से इलाज में रीमा को प्राथमिकता मिली। गोली के असर से रीमा की किडनी फेल हो गई और उसे नई किडनी की ज़रुरत थी। अब रीमा के ‘बाराबंकी बाजार’ से उसकी चाची जी काम आयीं और रीमा को समय पर किडनी मिल गयी।

एक दिन आराम से अपने कबूतरखाने की निन्नी सी बालकनी में चाय पीते हुए दोनों ने आँखों में ही एक-दूसरे से जैसे कहा हमारे ‘सर्कस’ या ‘बाराबंकी बाजार’ से हमे कितना कुछ मिलता है पर सुविधानुसार हम अपनी तरफ से किये गए काम याद रखते हैं और वहाँ से मिला सहारा हम कभी देखना ही नहीं चाहते। अब दोनों फिजियोथेरेपी और स्ट्रेस, डिप्रेशन कम करने के लिए साइकैट्री इलाज करवा रहें हैं….हाँ, वो डॉक्टर भी परिवार वाले या उनकी जान पहचान के निकल आये हैं।

समाप्त!

– मोहित शर्मा ज़हन

Artwork by Kenwood J. Huh

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