माहौल बनाना (कहानी) #ज़हन

15578850_1199889026770473_6364765217519918854_nArt – Harikant Dubey

वृद्ध लेखक रंजीत शुक्ला की अपने पोते हरमन से बहुत जमती थी। जहाँ नयी पीढ़ी के पास अपनों के अलावा हर किसी के लिए समय होता है वहाँ हरमन का रोज़ अपने दादा जी के साथ समय बिताना जानने वालो के लिए एक सुखद आश्चर्य था। बातों से बातें निकलती और लंबी चर्चा खिंचती चली जाती। एक दिन हरमन ने रंजीत से पूछा कि उन्हें अपने जीवन में किस चीज़ का मलाल है।

रंजीत गंभीर मुद्रा में कुछ सोचकर बोले – “कठिन सवाल है! इतने वर्षो में जाने कितनी गलतियाँ की हैं जिनपर सोचता हूँ कि उस समय कोई और निर्णय लिया होता तो अबतक जीवन कितना अलग होता फिर सोचता हूँ कि जिन बातों पर पछता रहा हूँ अगर वो ना की होती तो क्या आज, अबतक ‘मैं’ वाकई ‘मैं’ रहता? एक राह चुनने पर दूसरी राहों को छोड़ने का मलाल स्वाभाविक है।”

हरमन – “यानी मलाल हैं भी और नहीं भी? बड़ी अजीब स्थिति हो गयी ये तो। मुझे लगा जीवन के इस पड़ाव पर आपका हर जवाब निश्चित हो गया होगा।”

रंजीत – “वैसे एक चीज़ और रह गई। अपनी ज़िन्दगी के एक बड़े हिस्से मेरी एक आदत के कारण मैंने अनेक अवसर गंवाएं होंगे। वो आदत थी, किसी भी काम को करने के लिए माहौल बनाने की आदत।”

हरमन – “मैं समझा नहीं! माहौल मतलब?”

रंजीत – “मतलब हर बड़े काम को करने या महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले सभी बातें मेरे अनुकूल बनाने या उनके अनुकूल होने का इंतज़ार करना। मान लो मुझे कार खरीदनी है। तो कभी मार्किट के ठीक होने का इंतज़ार करना, कभी नौकरी बदलने या प्रमोशन की बाट जोहना, कभी सोचना इस शहर के हिसाब से मेरी पसंद की गाडी ठीक नहीं…एक बात को इतना टाल देना कि या तो वो साकार ही ना हो पाए या उसके पूरे होने पर मज़ा ना आये, एक अधूरापन लगे। इसी तरह किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में, घर लेने के निर्णय में, कोई किताब शुरू करने से पहले या निवेश में सभी आंतरिक और बाहरी घटकों के मेरे हिसाब से हो जाने का इंतज़ार करना। कभी कभार ऐसा करना गलत नहीं पर इसे एक आदत बना लेने से हम अपनी मेहनत से अधिक अपने भाग्य के भरोसे बैठ जाते हैं क्योकि जो बस के बाहर है उस स्थिति पर मन मसोस कर रह जाना सही नहीं।”

हरमन – “चलिए, मैं आज यह शपथ लेता हूँ कि पार्टी के अलावा कहीं माहौल नहीं बनाऊंगा…हा हा हा।”

समाप्त!

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अन-बेवकूफ (संवाद कहानी) – मोहित शर्मा ज़हन

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Mr. A – एक बात काफी सुनता हूँ मैं….”आज का यूथ जागरूक है, बेवकूफ नहीं है!”
मतलब कल या पहले के यूथ – तुम्हारे माँ-बाप-दादे बेवकूफ थे? जितने साधन उनके पास थे उस हिसाब से बहुत सही थे। शायद गूगल-इंटरनेट के सहारे टिके “यूथ” से कहीं बेहतर…

Miss B – …लेकिन गलतियां तो हुई हैं पहले लोगो से?

Mr. A – किसी पीढ़ी का आंकलन उस समय की परिस्थितियों को संज्ञान में लिए बिना नहीं करना चाहिए। एक जार में किसी तरह की अशुद्धियां डालिए और उस जार को हिलाइए, ऐसा होने पर बड़ी मात्रा में अशुद्धियां वापस तल पर जमने में समय लेंगी, जैसे आज़ादी और विभाजन के बाद भारतीय लोगो को नई स्थिति में जमने में सालों लग गए। साथ ही उस वक़्त अकाल, सूखा और अनाज की कमी के कारण लोग जीने के लिए आवश्यक मूलभूत बातों के लिए जूझ रहे थे। इसी दौरान भारत को तीन बड़े युद्धों को झेलना पड़ा, इन सबके बीच आम लोगो को आधारभूत (रोटी-कपड़ा-सर पर छत) सीढ़ी को चढ़ने में कुछ दशक लगे, जिसके चलते लोग अन्य मुद्दों तक जा नहीं पाए। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अविकसित क्षेत्र में अगर कोई शक्ति पा जाए तो उसे हटाने में समय लगता ही है, जो लोग पहले गलत बातों का विरोध करते थे उनके पास आर्थिक, सामाजिक और जन-जन तक अपनी बात ले जाने का कोई सहारा नहीं होता था। वैसी स्थिति अगर आज के दौर में होती तो मुझे नहीं लगता आज की पीढ़ी कुछ बेहतर कर पाती।

Miss B – एक बात मैं भी जोड़ना चाहती हूँ, यह सुपिरियोरीटी कॉम्प्लेक्स भावना लगभग हर पीढ़ी में होती है…तो माफ की जा सकती है। धीरे-धीरे कई सामान्य लोगों में अपने आप दूसरों और उनकी स्थिति समझने की और तुलना ना करने की अक्ल आ जाती है।

समाप्त!

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